मेरा सोचना है कि जब कोई व्यक्ति नई संस्था में जाता है तो उसके मन में थोड़ा भय होता है कि मैं यहाँ के लिए उपयुक्त हूँ या नहीं, या मुझे स्वीकार किया जाएगा कि नहीं और यदि ऐसे में कोई अनुपयुक्त स्थिति उत्पन्न हो जाए तो विश्वास भी थोड़ा हिल जाता है। कुछ ऐसा ही अनुभव मेरे साथ हुआ। मैं जिस विद्यालय में आई थी वहाँ काम करने की कभी कल्पना भी नहीं की थी क्योंकि मैं स्वयं को उस काबिल नहीं समझती थी। परंतु कुछ ऐसी परिस्थितियाँ आईं कि मैं वहाँ तक पहुंच गई।
हर तरह के काम करने की चाह मुझे सकारात्मक सोच की तरफ ले जाती कि चलो कुछ तो नया अनुभव होगा और मैंने स्वयं को सिद्ध करने का पूरा प्रयास किया। मैं भाग्यशाली थी कि मेरे प्रयासों का सकारात्मक प्रभाव विद्यालय प्रबंधन पर पड़ा और मैं वहाँ एक अध्यापिका के पद पर नियुक्त हुई। स्वाभाविक रूप से ज्यादातर मनुष्यों के अंदर प्रतिस्पर्धा का भाव रहता है, विकास के लिए आवश्यक भी है परंतु यह भी सच है कि प्रतिस्पर्धा व्यक्तिगत रूप से ज्यादा सामूहिक रूप में सफल होती है ।
अध्ययन के दौरान मैं सिखाने के विभिन्न तरीकों एवं शिक्षण सामग्री का प्रयोग करती रहती थी जिससे छात्र उत्सुकता और उत्साह के साथ अपनी भागीदारी दिखाते थे। फलस्वरूप कभी-कभी इस पर प्रतिक्रिया व्यंग्यात्मक तो कभी सकारात्मक होती थी। मेरे अनुभव के आधार पर शायद ये व्यक्तिगत स्वभाव का परिणाम होता है। किसी भी संस्थान के लिए सामूहिक एकता अत्यंत आवश्यक होती है। हमें सभी के विचारों और तरीकों का सम्मान करना चाहिए क्योंकि निष्कर्ष तो एक ही निकलेगा, जिसमें सफलता का मापदंड कम या ज्यादा हो सकता है।
यहाँ पर कुछ ऐसे बिंदु है जिस पर मैं अपना व्यक्तिगत अनुभव साझा कर रही हूँ –
- अपनी नए कार्यशैली के बारे में प्रबंधन को अवश्य बताएंँ फिर लागू करें।
- समय के साथ अपने संस्करण को बेहतर बनाएँ।
- सहकर्मियों के विचारों और तरीकों का सम्मान करें क्योंकि हमारा लक्ष्य एक ही है।
- अंतिम और महत्वपूर्ण बिंदु – ‘सकारात्मक सोच’ जो हर परिस्थिति में मनोबल को बनाए रखता है।
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