वर्तमान परिवेश में इन मूल्यों का
होना अत्यावश्यक हो
गया हैं। जिस प्रकार
मानव स्वयं को
सर्वश्रेष्ठ समझने की भूल
कर रहा था,
आज उसके विचार
गर्त में डूब
गए। हमने अपनी जिम्मेदारी ठीक
से निभाई होती
तो ये महामारी का
संकट सामने नहीं
आता। प्राचीन भारतीय मान्यताओं को
पिछड़ापन कहकर नकारने वाले
आज उसी के
यशोगान में समय
बिता रहे हैं।
एक
मनुष्य को कई
तरह की जिम्मेदारियाँ निभानी
पड़ती हैं। परिवार के
प्रति, समाज के
प्रति, अपने रोजगार के प्रति और
भी कोई हो
सकती है। पाप और
पुण्य की अवधारणा मनुष्य
को जिम्मेदारी वहन के लिए प्रोत्साहित करते
थे। आज इन अवधारणाओं से
परे हो जाने
पर मानव अपनी
जिम्मेदारियाँ
भी भूल गया।
इस
महामारी के अवसर ने
एक बार पुनः
जिम्मेदारी निभाने का अवसर
दिया। समाचार-पत्रों आदि
में यह अकसर पढ़ने में आ
रहा है कि
कई व्यक्ति, संस्थाएँ और
जानी-मानी हस्तियाँ परोपकार में
अपना तन और
धन समर्पित कर
रही है। जिससे जैसा
सहयोग हो सकता
है, कर रहा
है।
इस
अवसर पर सहयोग
की भी प्रबल
आवश्यकता है।
जिम्मेदारी और
सहयोग इन दोनों
मूल्यों से हम अग्रगामी हो
सकते हैं। 'परहित सरिस धर्म नहीं भाई'
उक्ति सार्थक हो
रही है। केवल इस
बात का मलाल
रह जाता है
कि यह सब
हमें संकट के
अवसर पर सूझा।
सामान्य परिस्थितियों में करते तो
कुछ और बात
होती। वैसे इसका भी
उत्तर होगा - परोपकार के
अवसर और समय
अभी मिला।
हर
परिस्थिति में इन दोनों
मूल्यों को अपनाना चाहिए। सब अपने-अपने
तरीके और सहुलियत से
इनको जीवन का
हिस्सा बनाए। परीक्षा होने
पर ही हम
बालकों का स्तर तय कर पाते
हैं। इसी प्रकार यह
भी एक परीक्षा ही
है।
विद्यार्थी-शिक्षक
दोनों अपनी जिम्मेदारी समझें
और आपस में
सहयोग करें। इसी प्रकार
अभिभावक अपने बच्चों के
साथ, अधिकारी-कर्मचारी जनता
के साथ और
सभी एक-दूसरे
के साथ सहयोग
करें और अपनी
जिम्मेदारी को ठीक से
निभाएँ। हर स्थान पर
ऐसा हो तो
किसी प्रकार की
कोई विपत्ति हमें
छू भी नहीं
सकेगी। सबसे ज्यादा उत्तरदायित्व शिक्षकों का
बनता हैं, उन्हें
अपने विद्यार्थियों में
इन मूल्यों को
जागृत करना होगा।
Krishan Gopal
The Fabindia School, Bali
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