Friday, June 8, 2018

Usha Panwar: कला ही जीवन है

कला  जिसे आंग्ल भाषा  में ''आर्ट '' के नाम से जाना जाता है। कला का अर्थ अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है.साधारण शब्दों  में हम कहें कि हमारे या अन्य के द्वारा मस्तिष्क में चल रही कल्पनाओं  को चित्र व हाव-भाव के द्वारा प्रदर्शित करना यही आर्ट (कला) हैं.A  प्रत्येक मनुष्य अपनी बुद्धि का सही उपयोग लेते हैं सब अपनी कला को अलग-अलग रूपोंमें सामने लाते हैं जैसे कुछ संगीत के रूप में ,कुछ नृत्य के रूप में ,कुछ वाद्य यंत्र बजाने के रूप में ,कुछ मूर्ति एवं शिल्पकला के रूप में, कुछ चित्रकला के रूप में।  कला जीवन को सत्यम शिवम् सुंदरम से समन्वित करती है कला का कोई छोर  (अंत) नहीं होता है।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा है कि 'कला से मनुष्य अपने भावों  की अभिव्यक्ति करता  है।' 
टालस्टाय के शब्दों में, 'अपने भावों की क्रिया, रंग, ध्वनि या शब्द द्वारा इस प्रकार प्रदर्शित करना कि उसे देखने या सुनने में भी वही भाव दिखे यही कला है |'

कलाओं में श्रेष्ठ चित्रकला है मनुष्य जैसा देखता है उसी प्रकार अपने को ढालने का प्रयत्न करता है अपनी रंगों से भरी  तुलिका से चित्रकार उन भावनाओं को अभिव्यक्त करता है तो देखने वाले हैरान रह जाते हैं,  चित्रों के माध्यम से  पाषाण युग के चित्र, आखेट करने वाले आदिमानव के चित्र, सिंधुघाटी के चित्रों में पशु-पक्षियों मानव आकृति की सुन्दर प्रतिमा ये सब कला प्रियता का द्योतक है मधुबनी शैली, पहाड़ी शैली, तंजोर शैली, मुगल शैली अपनी-अपनी विशेषताओं के कारण आज भी प्रसिद्ध  है।  कला से ही मनुष्य की बुद्धि का विकास होता है। कला के संपर्क और परिचय में आने से  मस्तिष्क की गतिविधि को बढ़ावा  मिलता है, मनुष्य समस्याओ का हल निकालना सीखता है। चित्रों के माध्यम से  दूसरों तक अपने विचार पहुँचाता है।  कला मनुष्य के व्यक्तित्व का समग्र विकास करती है। उसमें आत्मसम्मान का निर्माण होता है।  कला के माध्यम से व्यक्ति  अपना पारिवारिक व्यवसाय भी कर सकता है जिससे वह छोटा-बड़ा उद्योग करके कला को अपनी जिंदगी में महत्व दे सकता है और रोजगार पा सकता है और समाज में भी अपनी महत्ता बना सकता है।

कई शिक्षाविद नवीन शिक्षा-प्रणाली का पक्ष लेते हैं।  इस नवीन शिक्षा-प्रणाली के अनुसार बालक को हर कौशल की शिक्षा देना। यह कतई आवश्यक नहीं कि उसे हर बार केवल बुद्धि-परिक्षण ही देना पड़े।  पुस्तकें उसे रोचक नहीं लगती तो नहीं लगती।  यदि पुस्तकों से बालक को मोह नहीं तो उसे निकम्मा, नाकारा आदि शब्दों से विभूषित नहीं कर सकते।  ईश्वर ने उसे कोई अन्य गुण दिया होगा।  शायद वह बालक एक अच्छा गायक हो, एक अच्छा नर्तक हो, अच्छा चित्रकार हो अथवा अन्य कुछ हो।  बालक के इस गुण को पहचानना और उसके अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था करना।  इस प्रकार कला को जीवन भर साथ रख सकते है, उसमें नवीन प्रयोग भी कर सकते है तथा आजीविका का साधन भी बना सकते है। कला के कई रूप है कौन किसमें निपुण है यही पहचान आवश्यक है।
 ऊषा पंवार 
The Fabindia School, Bali

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