गुरू ही है जो अपने शिष्यों को अज्ञान रुपी अंधकार से ज्ञान रुपी प्रकाश की ओर ले जाते हैं। माँ बालक की प्रथम गुरू कहलाती है क्योंकि कई सारी बांतें बालक अपनी माँ से ही सीखता है। द्वितीय स्थान शिक्षक का है, वह भी अपना सर्वश्रेष्ठ अपने शिष्य को देने की इच्छा रखता है।
गुरू की महिमा का वर्णन कोई नहीं कर सका गुरू का स्थान ऊँचा रहा है पहले के जमाने में गुरूआश्रम में अपने शिष्यों को शिक्षा देते थे । लेकिन समय बदला और बहुत सारे बदलाव आए अबगुरूकुल या आश्रम से स्कूल कॉलेज बन चुके हैं। गुरू हमें सही गलत की शिक्षा देता है। मार्गदर्शन करता है हमें सब कुछ सिखाता है गुरू का आज भी आदर है गुरू-पूर्णिमा का पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। भले ही कबीरदास जी अनपढ़ थे परन्तु गुरू की महिमा का भान था उन्हें तभी तो वे कहते थे-
गुरू गोबिन्द दोऊ खड़े काके लागु पाय।
बलिहारी गुरू आपनी गोबिन्द दियो बताय।
स्वयं ईश्वर ने कहा है कि गुरू महान है क्योंकि परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग गुरू ही दिखलाता है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल में शिक्षा होती थी तब गुरू व शिष्य में घनिष्ठ संबंध होते हैं, वे साथ रहते तथा एक दूसरे को ठीक तरह समझते थे । महाभारत में जैसे सभी जानते हैं कि एकलव्य द्रोणाचार्य से छिप-छिपकर धनुष विद्या सीखता था। वह सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन चुका था गुरूदक्षिणा में उसका अंगूठा अपने गुरू को दे दिया क्योंकि एकलव्य के लिए धनुष विद्या अपने गुरू से बढ़कर नहीं थी । इसी महाभारत में जब युद्ध का वर्णन आता है तब पांडव युद्ध करने से पहले अपने गुरू द्रोणाचार्य को प्रणाम करते हैं और गुरू भी विपक्षी दल में होते हुए विजय का आशीर्वाद देते थे। दोनों पक्षों में कितनी सरलता छिपी रहती थी जो केवल ऐसे अवसरों पर ही दृष्टिगोचर होती थी।
समय अवश्य बदला है किन्तु गुरू का स्थान नहीं। आज भी शिक्षक अपने शिष्य को उच्च ज्ञान देने के लिए तत्पर रहता है। इस हेतु वह स्वयं नवीन तथ्यों से अवगत रहता है। समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं या अन्य पुस्तकों द्वारा समसामयिक गतिविधियों से साक्षात्कार करता रहता है। गुरूसे हमेशा सीखते रहिए कभी भी अपने आप को गुरू से श्रेष्ठ न समझना चाहिए तब गुरू भगवान से बढ़कर प्रतीत होता है गुरू के प्रति आदर रखना चाहिए यही शिष्य का धर्म है।
गुरू की महिमा का वर्णन कोई नहीं कर सका गुरू का स्थान ऊँचा रहा है पहले के जमाने में गुरूआश्रम में अपने शिष्यों को शिक्षा देते थे । लेकिन समय बदला और बहुत सारे बदलाव आए अबगुरूकुल या आश्रम से स्कूल कॉलेज बन चुके हैं। गुरू हमें सही गलत की शिक्षा देता है। मार्गदर्शन करता है हमें सब कुछ सिखाता है गुरू का आज भी आदर है गुरू-पूर्णिमा का पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। भले ही कबीरदास जी अनपढ़ थे परन्तु गुरू की महिमा का भान था उन्हें तभी तो वे कहते थे-
गुरू गोबिन्द दोऊ खड़े काके लागु पाय।
बलिहारी गुरू आपनी गोबिन्द दियो बताय।
स्वयं ईश्वर ने कहा है कि गुरू महान है क्योंकि परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग गुरू ही दिखलाता है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल में शिक्षा होती थी तब गुरू व शिष्य में घनिष्ठ संबंध होते हैं, वे साथ रहते तथा एक दूसरे को ठीक तरह समझते थे । महाभारत में जैसे सभी जानते हैं कि एकलव्य द्रोणाचार्य से छिप-छिपकर धनुष विद्या सीखता था। वह सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन चुका था गुरूदक्षिणा में उसका अंगूठा अपने गुरू को दे दिया क्योंकि एकलव्य के लिए धनुष विद्या अपने गुरू से बढ़कर नहीं थी । इसी महाभारत में जब युद्ध का वर्णन आता है तब पांडव युद्ध करने से पहले अपने गुरू द्रोणाचार्य को प्रणाम करते हैं और गुरू भी विपक्षी दल में होते हुए विजय का आशीर्वाद देते थे। दोनों पक्षों में कितनी सरलता छिपी रहती थी जो केवल ऐसे अवसरों पर ही दृष्टिगोचर होती थी।
समय अवश्य बदला है किन्तु गुरू का स्थान नहीं। आज भी शिक्षक अपने शिष्य को उच्च ज्ञान देने के लिए तत्पर रहता है। इस हेतु वह स्वयं नवीन तथ्यों से अवगत रहता है। समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं या अन्य पुस्तकों द्वारा समसामयिक गतिविधियों से साक्षात्कार करता रहता है। गुरूसे हमेशा सीखते रहिए कभी भी अपने आप को गुरू से श्रेष्ठ न समझना चाहिए तब गुरू भगवान से बढ़कर प्रतीत होता है गुरू के प्रति आदर रखना चाहिए यही शिष्य का धर्म है।
राजेश्वरी राठौड़
The Fabindia School, Bali
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