जितने भी हैं,सब हैं अनूप।
कभी प्रथम शिक्षिका बन,
माँ के रूप में आते हो।
कभी पिता बन,चलना,फिरना
जीवन की दौड़ सिखाते हो।
कभी धरा सी सहनशीलता।
नभ् सा विस्तार बताते हो।
कभी प्रकृति की छटा बन,
जीवन सिखला जाते हो।।
पुष्प से मुस्कान,
कांटो से कठिनाइयाँ
दरख्तों से कर्मठता समझाते।
तुम ही निराकार ब्रह्म हो,
तुम्ही हो साकार,
तुम ही सबके जीवन को,
देते नवाकार।
तुम बिन कैसे भला,
गोविन्द गीता कह पाते,
राम को राम बना,
श्री वशिष्ट तुम कहलाते।
तुम ही तममय् धरा पर,
एक स्त्रोत हो उजास का।
जो हीरा के गुण लिए
तुम साधन,
उस पाषाण की तलाश का।
तुम देते जीवन को दर्शन,
हर प्रतिबिम्ब का तुम हो दर्पण।
तुम हो ईश्वर,तुम हो मानव,
तुम तो हर कण-कण में हो।
तुम ही हो विष्णुस्परूप।
हे गुरु तेरे कितने रूप,
जितने भी हैं,सब हैं अनूप।।
---पूर्ति वैभव खरे--
Poorti.85@gmail.com
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